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रविवार, 28 दिसंबर 2008

ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता: इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखते कवि कुंवर नारायण

अभी कुछ दिनों पहले ही यूनेस्को ने लखनऊ की नजाकत-नफासत से भरे आदाब व कवाब को विश्व धरोहरों में शामिल करने की सोची ही थी कि उसी लखनवी तहजीब से जुड़े कवि कुंवर नारायण का साहित्य के सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयन एक सुखद अनुभूति से भर देता है। लखनऊ की धरती सदैव से साहित्य-संस्कृति के मामले में उर्वर रही है। मिथकों और समकालीनता को एक सिक्के के दो पहलू मानते हुए रचनाधर्मिता में उतारना कोई यहाँ के लेखकांे-साहित्यकारों से सीखे। ‘‘मैं मूलतः लखनवी हूँ और भूलतः कुछ और‘‘ जैसी उद्घोषणा करने वाले मनोहर श्याम जोशी ने भी ’कपीश जी‘ में पूर्व बनाम पश्चिम की भिड़ंत कोे पवनपुत्र हनुमान के माध्यम से उकेरा था। फिर कुंवर नारायण जी इससे कैसे अछूते रहते । यही कारण है कि वे एक साथ ही अपनी कविताओं में वेदों, पुराणों व अन्य धर्मग्रंथों से उद्धरण देते हैं तो समकालीन पाश्चात्य चिंतन, लेखन परम्पराओं, इतिहास, सिनेमा, रंगमंच, विमर्शों, विविध रूचियों एवं विशद अध्ययन को लेकर अंततः उनका लेखन संवेदनशील लेखन में बदल जाता है। आरम्भ में विज्ञान व तत्पश्चात साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण वे चीजों को गहराई में उतरकर देखने के कायल हैं।
आज जब कविता के लिए यह रोना रोया जाता है कि कविता पढ़ने और समझने वाले कम हो रहे हैं और पत्र-पत्रिकाओं में इसका इस्तेमाल फिलर के रूप में हो रहा है, वहाँ कवि कुंवर नारायण दूरदर्शिता के साथ हिन्दी कविता को नये संदर्भों में जीते नजर आते हैं-’’ कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने, कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने।’’ उनकी यह सारगर्भित टिप्पणी गौर करने लायक है-’’जीवन के इस बहुत बड़े कार्निवल में कवि उस बहुरूपिए की तरह है, जो हजारों रूपों में लोगों के सामने आता है, जिसका हर मनोरंजक रूप किसी न किसी सतह पर जीवन की एक अनुभूत व्याख्या है और जिसके हर रूप के पीछे उसका अपना गंभीर और असली व्यक्तित्व होता है, जो इस सारी विविधता के बुनियादी खेल को समझता है।’’ कुंवर नारायण ने कविता को सफलतापूर्वक प्रबंधात्मक रूप देने के साथ ही मिथकांे के नये प्रयोगों का अतिक्रमण करते हुए उन्हें ठेठ भौतिक भूमि पर भी स्थापित किया। तभी तो अपनी सहज बौद्धिकता के साथ वे आमजन के कवि भी बने रहते हैं। नई कविता आन्दोलन के इस सशक्त हस्ताक्षर के लिए कभी विष्णु खरे जी ने कहा था कि -’’कुंवर नारायण भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट नागरिक के रूप में नहीं, बल्कि एक आम आदमी के रूप में प्रवेश करते हैं।’’ ऐसे में यह ज्ञानपीठ पुरस्कार सिर्फ इसलिए नहीं महत्पूर्ण है कि यह एक ऐसी शख्सियत को मिला है जो वाद और विवाद से परे है बल्कि कविता के बहाने यह पूरे साहित्य का सम्मान है। हिन्दी को तो यह अवसर लगभग 8-9 वर्षों बाद मिला है और कविता को तो शायद और भी बाद में मिला है।
नई कविता से शुरूआत कर आधुनिक कवियों में शीर्ष स्थान बनाने वाले कुंवर नारायण का जन्म 19 सितम्बर 1927 को फैजाबाद में हुआ। उन्होंने इण्टर तक की पढ़ाई विज्ञान विषय से की और फिर लखनऊ विश्वविद्यालय से 1951 में अंग्रेजी साहित्य में एम0ए0 की उपाधि प्राप्त की। पहले माँ और फिर बहन की असामयिक मौत ने उनकी अन्तरात्मा को झकझोर कर रख दिया, पर टूट कर भी जुड़ जाना उन्होंने सीख लिया था। पैतृक रूप में उनका कार का व्यवसाय था, पर इसके साथ उन्होंने साहित्य की दुनिया में भी प्रवेश करना मुनासिब समझा। इसके पीछे वे कारण गिनाते हैं कि साहित्य का धंधा न करना पड़े इसलिए समानान्तर रूप से अपना पैतृक धंधा भी चलाना उचित समझा। जब वे अंग्रेजी से एम0ए0 कर रहे थे तो उन्होंने कुछेक अंग्रेजी कविताएं भी लिखीं, पर उनकी मूल पहचान हिन्दी कविताओं से ही बनी। एम0एम0 करने के ठीक पांच वर्ष बाद वर्ष 1956 में 29 वर्ष की आयु में उनका प्रथम काव्य संग्रह ’चक्रव्यूह’ नाम से प्रकाशित हुआ। अल्प समय में ही अपनी प्रयोगधर्मिता के चलते उन्होंने पहचान स्थापित कर ली और नतीजन अज्ञेय जी ने वर्ष 1959 में उनकी कविताओं को केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ ’तीसरा सप्तक’ में शामिल किया। यहाँ से उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। 1965 में ’आत्मजयी’ जैसे प्रबंध काव्य के प्रकाशन के साथ ही कुंवर नारायण ने असीम संभावनाओं वाले कवि के रूप में पहचान बना ली। फिर तो आकारों के आसपास (कहानी संग्रह-1971), परिवेश: हम-तुम, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, आज और आज से पहले (समीक्षा), मेरे साक्षात्कार और हाल ही में प्रकाशित वाजश्रवा के बहाने सहित उनकी तमाम कृतियाँ आईं। अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखने के लिए प्रसिद्ध कुंवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उस पर कोई एक लेबल लगाना सम्भव नहीं। यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संपे्रषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय-विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है।’तनाव’ पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है। वे एक ऐसे लेखक हैं जो अपनी तरह से सोचता और लिखता है। बताते हैं कि सत्यजित रे जब लखनऊ में ’शतरंज के खिलाड़ी’ की शूटिंग कर रहे थे तो वह कुंवर नारायण से अक्सर इस पर चर्चा किया करते थे।
कुंवर नारायण न सिर्फ आम जन के कवि हैं बल्कि उतने ही सहज भी। हाल ही में प्रकाशित ’वाजश्रवा के बहाने’ में उनकी कुछेक पंक्तियाँ इसी सहजता को दर्शाती हैं- ’’कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है/एक जीवन दृष्टि/कि उनमें विनम्र अभिलाषाएँ हों/बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं/वाणी में कवित्व हो/कर्कश तर्क-वितर्क का घमासान नहीं/कल्पना में इन्द्रधनुषों के रंग हों/ ईष्र्या द्वेष के बदरंग हादसे नहीं/निकट संबंधों के माध्यम से बोलता हो पास-पड़ोस/और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह/सुगठित और अकाट्य हो/जीवन विवेक..........।’’ साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, कबीर सम्मान, हिन्दी अकादमी का शलाका सम्मान जैसे तमाम सम्मानों से विभूषित कंुवर नारायण को जब वर्ष 2005 के 41वें ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया तो उनकी टिप्पणी भी उतनी ही सहज थी। वे इस पर इतराते नहीं बल्कि इसे एक जिम्मेदारी और ़ऋण की तरह देखते हैं। इस पुरस्कार के बाद वे अपने को चुका हुआ नहीं मानते बल्कि नए सिरे से अपने लेखन को देखना चाहते है और उसकी पुर्नसमीक्षा भी चाहते हैं ताकि जो कुछ छूटा है, उसकी भरपाई की जा सके।
एक ऐसे दौर में जहाँ आधुनिक कविता भूमण्डलीकरण के द्वंद्व से ग्रस्त है और जहाँ बाजारू प्रभामण्डल एवं ंचमक-दमक के बीच आम व्यक्ति के वजूद की तलाश जारी है, वहाँ वाद के विवादों से इतर और लीक से हटकर चलने वाले कुंवर नारायण की कविताएं अपने मिथकों और मानकों के साथ आमजन को गरिमापूर्ण तरीके से लेकर चलती हैं। तभी तो वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह कहते हैं-’’कुंवर नारायण की कविताएं सहजता और विचार परिपक्वता के सम्मिलन से शुरू होती हैं। उनके पास भाषा और अंतर्कथ्य का जितना सुघड़ समन्वय है, वह हिन्दी कविता में दुर्लभ है। तुकों और छंद पर उनके जैसा अधिकार नए कवियों के लिए सीख है।’’
*** कृष्ण कुमार यादव***

19 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

...Nice Article.

बेनामी ने कहा…

लखनऊ की नजाकत-नफासत से भरे आदाब व कवाब को विश्व धरोहरों में शामिल करने की सोची ही थी कि उसी लखनवी तहजीब से जुड़े कवि कुंवर नारायण का साहित्य के सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयन एक सुखद अनुभूति से भर देता है। ....Lucknow ke liye to yah bade gaurav ki bat hai bhai !!

Amit Kumar Yadav ने कहा…

नए रचनाकारों के लिए कवि कुंवर नारायण सदैव से प्रेरणास्पद रहे हैं. अपने उन पर आलेख प्रकाशित कर अच्छा कार्य किया है.

Akanksha Yadav ने कहा…

एक ऐसे दौर में जहाँ आधुनिक कविता भूमण्डलीकरण के द्वंद्व से ग्रस्त है और जहाँ बाजारू प्रभामण्डल एवं ंचमक-दमक के बीच आम व्यक्ति के वजूद की तलाश जारी है, वहाँ वाद के विवादों से इतर और लीक से हटकर चलने वाले कुंवर नारायण की कविताएं अपने मिथकों और मानकों के साथ आमजन को गरिमापूर्ण तरीके से लेकर चलती हैं। ************एक बेहतरीन लेख.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

'अभिव्यक्ति' और 'सृजनगाथा' पर भी आपका यह लेख पढ़ा था...उत्तम शब्दों में अपने कुंवर नारायण जी को प्रस्तुत किया है.

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

एक लम्बे समय बाद हिंदी कविता को ज्ञानपीठ मिला है, ऐसे में यह लेख और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

वाह..मान गए आपकी लेखनी को.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, कबीर सम्मान, हिन्दी अकादमी का शलाका सम्मान जैसे तमाम सम्मानों से विभूषित कंुवर नारायण को जब वर्ष 2005 के 41वें ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया तो उनकी टिप्पणी भी उतनी ही सहज थी। वे इस पर इतराते नहीं बल्कि इसे एक जिम्मेदारी और ़ऋण की तरह देखते हैं। इस पुरस्कार के बाद वे अपने को चुका हुआ नहीं मानते बल्कि नए सिरे से अपने लेखन को देखना चाहते है और उसकी पुर्नसमीक्षा भी चाहते हैं ताकि जो कुछ छूटा है, उसकी भरपाई की जा सके।
कुंवर नारायण जी is puruskar k haqdar the...

Aadarsh Rathore ने कहा…

आपकी लेखन शैली से अभिभूत हो गया हूं....

Bahadur Patel ने कहा…

vakai bahut khubsurat likh hai.
kunvar narayan ji ke bare me aapane bahut achchha likha hai.

आभा ने कहा…

सचमुच लम्बे समय बाद हिंदी कविता को ज्ञानपीठ मिला है, आपका यह लेख काफी काम का है....आपके जरिए एक बार फिर कुँअर जी को बधाई

daanish ने कहा…

aap sahitya ko smarpit haiN...
aapki lagan aur nishtha anukaraneey
aur sraahneey hai.
iss qadar m`aalumaati lekh ke liye
shukriya aur mubaarakbaad.
Guftu mei aapko parhaa hai maine.
---MUFLIS---

अनुपम अग्रवाल ने कहा…

ये पुरस्कार पाने के लिए और लखनऊ का नाम रोशन करने के लिए कुंवर जी को बधाई .
आप भी धन्यवाद के पात्र हैं इस लेख और जानकारी को प्रकाशित करने के लिए.

अभिषेक मिश्र ने कहा…

Kavi Kunvar Narayan ji par mahatwapurna jaankari uplabdh karane ka dhanyawad.

आशीष कुमार 'अंशु' ने कहा…

सच लिखा आपने कृष्ण जी ...

Prakash Badal ने कहा…

भाई साहब अच्छा लगा कवि कुंअर नारायण के बारे में पढ़कर आपने बहुत खूबसूरत ब्लॉग बनाया है और मेरी शुभकामनाएं स्वीकारें जब भी कुछ नया लिखा हो और पोस्ट करें तो मुझे सूचित अवश्य करें मैं पढ़ने को उत्सुक रहूंगा।

KK Yadav ने कहा…

Friends! Thanks for ur nice comments.

Betuke Khyal ने कहा…

i am not competent enough to say whether Kunwar Narayan deserved it or not... sahitya me dakhal kam hai meri. But yes I have enjoyed reading him.

Kudos to Mr. Yadav for such a write-up. Hindi is a much neglected language. In this age of IT & globalisation english does have that professional edge over other languages, including Hindi. Moreover, there has been an increasing tendency of disowning Hindi by the society at large. In this sense regional vernacular languages have an advantage- people associate themselves with regional languages more often. That makes this blog that much more significant. Congrats Mr. Yadav. Keep up the good work.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

KK Ji! हिंदी अकादमी हैदराबाद से प्रकाशित पत्रिका "संकल्य" के अक्टूबर-दिसम्बर २००८ में कुंवर नारायण पर आपका यह प्रभावशाली आलेख प्रकाशित हुआ है...बधाई !!